Top 10 Life-Changing Shlokas of the Bhagavad Gita

By raateralo.com

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The Bhagavad Gita, often referred to as the “Song of God,” is a treasure trove of timeless wisdom and spiritual guidance. Its verses, or shlokas, have inspired countless individuals across generations, offering profound insights into life, duty, and the path to inner peace. Whether you’re seeking clarity in your personal journey or striving for a deeper understanding of the universe, the Gita holds lessons that resonate universally.

In this blog, we present the Top 10 Life-Changing Shlokas from the Bhagavad Gita—verses that distill the essence of this sacred scripture. These shlokas not only illuminate the core teachings of the Gita but also serve as a beacon of hope and transformation in our daily lives. Dive in and discover the profound wisdom that has the power to shape your outlook and inspire meaningful change.

Top 10 Life-Changing Shlokas of the Bhagavad Gita

श्लोक 2 . 47

कर्मण्यवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन |
 मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोSस्त्वकर्मणि || ४७ ||

Karmaṇyevādhikāraste mā phaleṣu kadācana,

Mā karmaphalaheturbhūrmā te saṅgo’stvakarmaṇi.

 शब्दार्थ:  
कर्मणि – कर्म करने में; एव – निश्चय ही; अधिकारः – अधिकार; ते – तुम्हारा; मा – कभी नहीं; फलेषु – (कर्म) फलों में; कदाचन – कदापि; मा – कभी नहीं; कर्म-फल – कर्म का फल; हेतुः – कारण; भूः – होओ; मा – कभी नहीं; ते – तुम्हारी; सङ्गः- आसक्ति; अस्तु – हो; अकर्मणि – कर्म न करने में |

भावार्थ:
तुम्हें अपने कर्म (कर्तव्य) करने का अधिकार है, किन्तु कर्म के फलों के तुम अधिकारी नहीं हो | तुम न तो कभी अपने आपको अपने कर्मों के फलों का कारण मानो, न ही कर्म न करने में कभी आसक्त होओ |

Meaning:
Stay committed to your responsibilities and duties, but do not cling to the desire for outcomes. Understand that the results are not entirely in your control, and avoid falling into the trap of idleness or procrastination.

Lesson:
This shloka is a powerful motivational teaching for students and anyone striving for success. It highlights the value of focused effort and perseverance without becoming overly attached to the results. By adopting this mindset, one can work with sincerity and dedication while remaining free from anxiety and disappointment. It inspires us to trust the process and embrace every step of the journey with grace and resilience.


श्लोक 4 . 7

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत |
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् || ७ ||

Yadā Yadāhi dharmasya glānirbhavati bhārata,

Abhyutthānamadharmasya tadātmānaṃ sṛjāmyaham.

शब्दार्थ:
यदा यदा – जब भी और जहाँ भी; हि – निश्चय ही; धर्मस्य – धर्म की; ग्लानिः – हानि, पतन; भवति – होती है; भारत – हे भारतवंशी; अभ्युत्थानम् – प्रधानता; अधर्मस्य – अधर्म की; तदा – उस समय; आत्मानम् – अपने को; सृजामि – प्रकट करता हूँ; अहम् – मैं |

भावार्थ:
हे भारतवंशी! जब भी और जहाँ भी धर्म का पतन होता है और अधर्म की प्रधानता होने लगती है, तब तब मैं अवतार लेता हूँ |

Meaning:
Whenever virtue diminishes and vice rises, O Arjuna, I manifest myself to protect the good, destroy the wicked, and reestablish dharma (righteousness).

Lesson:
This shloka conveys a timeless message of hope and assurance. Lord Krishna promises that in times of chaos and moral decline, he will intervene to restore balance and uphold righteousness. It inspires faith in divine justice and reminds us that truth and virtue will ultimately prevail over darkness and falsehood. This teaching motivates us to remain steadfast in our values, knowing that higher forces work to protect dharma.


श्लोक 4 . 8

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् |
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे || ८ ||

शब्दार्थ:
परित्राणाय – उद्धार के लिए; साधूनाम् – भक्तों के; विनाशाय – संहार के लिए; च – तथा; दुष्कृताम् – दुष्टों के; धर्म – धर्म के; संस्थापन-अर्थाय – पुनः स्थापित करने के लिए; सम्भवामि – प्रकट होता हूँ; युगे – युग; युगे – युग में |

भावार्थ:
भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ |

श्लोक 9 . 22
अनन्याश्र्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् || २२ ||

शब्दार्थः
अनन्याः – जिसका कोई अन्य लक्ष्य न हो, अनन्य भाव से; चिन्तयन्तः – चिन्तन करते हुए; माम् – मुझको; ये – जो; जनाः – व्यक्ति; पर्युपासते – ठीक से पूजते हैं; तेषाम् – उन; नित्य – सदा; अभियुक्तानाम् – भक्ति में लीन मनुष्यों की; योग – आवश्यकताएँ; क्षेमम् – सुरक्षा, आश्रय; वहामि – वहन करता हूँ; अहम् – मैं |

भावार्थः
किन्तु जो लोग अनन्यभाव से मेरे दिव्यस्वरूप का ध्यान करते हुए निरन्तर मेरी पूजा करते हैं, उनकी जो आवश्यकताएँ होती हैं, उन्हें मैं पूरा करता हूँ और जो कुछ उनके पास है, उसकी रक्षा करता हूँ |

श्लोक 18.66
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा श्रुचः || ६६ ||

शब्दार्थ:
सर्व-धर्मान् – समस्त प्रकार के धर्म; परित्यज्य – त्यागकर; माम् – मेरी; एकम् – एकमात्र;शरणम् – शरण में; व्रज – जाओ; अहम् – मैं; त्वाम् – तुमको; सर्व – समस्त; पापेभ्यः – पापों से; मोक्षयिष्यामि – उद्धार करूँगा;मा – मत; शुचः – चिन्ता करो ।

भावार्थ:
समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ । मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा । डरो मत ।

श्लोक 3 . 16

एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः |
आघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति || १६ ||

शब्दार्थ:
एवम् – इस प्रकार; प्रवर्तितम् – वेदों द्वारा स्थापित; चक्रम् – चक्र; न – नहीं; अनुवर्तयति – ग्रहण करता; इह – इस जीवन में; यः – जो; अघ-आयुः – पापपूर्ण जीवन है जिसका; इन्द्रिय-आरामः – इन्द्रियासक्त; मोघम् – वृथा; पार्थ – हे पृथापुत्र (अर्जुन); सः – वह; जीवति – जीवित रहता है |

भावार्थ:
वेदों में नियमित कर्मों का विधान है और ये साक्षात् श्रीभगवान् (परब्रह्म) से प्रकट हुए हैं | फलतः सर्वव्यापी ब्रह्म यज्ञकर्मों में सदा स्थित रहता है |

श्लोक 2 . 19

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्र्चैनं मन्यते हतम् |
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते || १९ ||

    शब्दार्थ:  

यः – जो; एनम् – इसको; वेत्ति – जानता है; हन्तारम् – मारने वाला; यः – जो; च – भी; एनम् – इसे; मन्यते – मानता है; हतम् – मरा हुआ; उभौ – दोनों; तौ – वे; न – कभी नहीं; विजानीतः – जानते है; न – कभी नहीं; अयम् – यह; हन्ति – मारता है; न – नहीं; हन्यते – मारा जाता है |

भावार्थ

जो इस जीवात्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसे मरा हुआ समझता है, वे दोनों ही अज्ञानी हैं, क्योंकि आत्मा न तो मरता है और न मारा जाता है |

श्लोक 2 . 70

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं
समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् |
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे
     स शान्तिमाप्नोति न कामकामी || ७० ||

शब्दार्थ: आपूर्यमाणम् – नित्य परिपूर्ण; अचल-प्रतिष्ठम् – दृढ़ ता पूर्वक स्थित; समुद्र म् – समुद्र में; आपः – नदियाँ; प्रविशन्ति – प्रवेश करती हैं; यद्वतः – जिस प्रकार; तद्वतः – उसी प्रकार; कामाः – इच्छाएँ; यम् – जिसमें; प्रविशन्ति – प्रवेश करती हैं; सर्वे – सभी; सः – वह व्यक्ति; शान्तिम् – शान्ति; आप्नोति – प्राप्त करता है; न – नहीं; काम-कामी – इच्छाओं को पूरा करने का इच्छुक |

भावार्थ:
जो पुरुष समुद्र में निरन्तर प्रवेश करती रहने वाली नदियों के समान इच्छाओं के निरन्तर प्रवाह से विचलित नहीं होता और जो सदैव स्थिर रहता है, वही शान्ति प्राप्त कर सकता है, वह नहीं, जो ऐसी इच्छाओं को तुष्ट करने की चेष्ठा करता हो |

श्लोक 12.15

यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः |
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः || १५ ||

शब्दार्थ: यस्मात् – जिससे; न – कभी नहीं; उद्विजते – उद्विग्न होते हैं; लोकः – लोग; लोकात् – लोगों से; न – कभी नहीं; उद्विजते – विचलित होता है; च – भी; यः – जो; हर्ष – सुख; अमर्ष – दुख; भव – भय; उद्वैगैः – तथा चिन्ता से; मुक्तः – मुक्त; यः – जो; सः – वह; च – भी; मे – मेरा; प्रियः – प्रिय |

भावार्थ:
जिससे किसी को कष्ट नहीं पहुँचता तथा जो अन्य किसी के द्वारा विचलित नहीं किया जाता, जो सुख-दुख में, भय तथा चिन्ता में समभाव रहता है, वह मुझे अत्यन्त प्रिय है |

श्लोक 18.11
न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः |
यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते || ११ ||

शब्दार्थः
न – कभी नहीं; हि – निश्चय ही; देह-भृता – देहधारी द्वारा; शक्यम् – सम्भव है; त्यक्तुम् – त्यागने के लिए; कर्माणि – कर्म; अशेषतः – पूर्णतया; यः – जो; तु – लेकिन; कर्म -कर्म के; फल – फल का; त्यागी – त्याग करने वाला;सः – वह; त्यागी – त्यागी; इति – इस प्रकार; अभिधीयते – कहलाता है ।

भावार्थः
निस्सन्देह किसी भी देहधारी प्राणी के लिए समस्त कर्मों का परित्याग कर पाना असम्भव है । लेकिन जो कर्म फल का परित्याग करता है, वह वास्तव में त्यागी है ।

श्लोक 7 . 19
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते |
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः || १९ ||

शब्दार्थ:
बहूनाम् – अनेक; जन्मनाम् – जन्म तथा मृत्यु के चक्र के; अन्ते – अन्त में; ज्ञान-वान् – ज्ञानी; माम् – मेरी; प्रपद्यते – शरण ग्रहण करता है; वासुदेवः – भगवान् कृष्ण; सर्वम् – सब कुछ; इति – इस प्रकार; सः – ऐसा; महा-आत्मा – महात्मा; सु-दुर्लभः – अत्यन्त दुर्लभ है |

भावार्थ:
अनेक जन्म-जन्मान्तर के बाद जिसे सचमुच ज्ञान होता है, वह मुझको समस्त कारणों का कारण जानकर मेरी शरण में आता है | ऐसा महात्मा अत्यन्त दुर्लभ होता है |

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