Top 10 Dohe of Kabir Das: कबीरदास, भारतीय संत और कवि, अपने दोहों के माध्यम से लोगों को जीवन का असली अर्थ समझाने का अद्वितीय तरीका रखते थे। उनके दोहे न केवल सरल और संक्षिप्त होते हैं, बल्कि गहरे और प्रभावशाली भी होते हैं। कबीर के दोहे जीवन के हर पहलू को छूते हैं – चाहे वह आध्यात्मिकता हो, नैतिकता हो, या फिर सामाजिक सत्य।
इस ब्लॉग में, हम कबीर के 10 बेहतरीन दोहों को साझा करेंगे जो हमें जिंदगी का असली ज्ञान प्रदान करते हैं। ये दोहे हमें आत्म-चिंतन करने, अपनी गलतियों से सीखने, और सही मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हैं। आइए, इन अनमोल दोहों के माध्यम से कबीर के ज्ञान के सागर में डुबकी लगाएं और अपने जीवन को एक नई दिशा दें।
Top 10 Dohe of Kabir Das l Kabir Das ji ke dohe with meaning l कबीर के 10 बेहतरीन दोहे
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जीवन की महिमा
जीवन में मरना भला, जो मरि जानै कोय |
मरना पहिले जो मरै, अजय अमर सो होय ||
अर्थ : जीते जी ही मरना अच्छा है, यदि कोई मरना जाने तो। मरने के पहले ही जो मर लेता है, वह अजर-अमर हो जाता है। शरीर रहते-रहते जिसके समस्त अहंकार समाप्त हो गए, वे वासना - विजयी ही जीवनमुक्त होते हैं।
मैं जानूँ मन मरि गया, मरि के हुआ भूत |
मूये पीछे उठि लगा, ऐसा मेरा पूत ||
अर्थ : भूलवश मैंने जाना था कि मेरा मन भर गया, परन्तु वह तो मरकर प्रेत हुआ। मरने के बाद भी उठकर मेरे पीछे लग पड़ा, ऐसा यह मेरा मन बालक की तरह है।
भक्त मरे क्या रोइये, जो अपने घर जाय |
रोइये साकट बपुरे, हाटों हाट बिकाय ||
अर्थ : जिसने अपने कल्याणरुपी अविनाशी घर को प्राप्त कर लिया, ऐसे संत भक्त के शरीर छोड़ने पर क्यों रोते हैं? बेचारे अभक्त - अज्ञानियों के मरने पर रोओ, जो मरकर चौरासी लाख योनियों के बाज़ार में बिकने जा रहे हैं।
मैं मेरा घर जालिया, लिया पलीता हाथ |
जो घर जारो आपना, चलो हमारे साथ ||
अर्थ : संसार - शरीर में जो मैं - मेरापन की अहंता - ममता हो रही है - ज्ञान की आग बत्ती हाथ में लेकर इस घर को जला डालो। अपना अहंकार - घर को जला डालता है।
शब्द विचारी जो चले, गुरुमुख होय निहाल |
काम क्रोध व्यापै नहीं, कबूँ न ग्रासै काल ||
अर्थ : गुरुमुख शब्दों का विचार कर जो आचरण करता है, वह कृतार्थ हो जाता है। उसको काम क्रोध नहीं सताते और वह कभी मन कल्पनाओं के मुख में नहीं पड़ता।
जब लग आश शरीर की, मिरतक हुआ न जाय |
काया माया मन तजै, चौड़े रहा बजाय ||
अर्थ : जब तक शरीर की आशा और आसक्ति है, तब तक कोई मन को मिटा नहीं सकता। इसलिए शरीर का मोह और मन की वासना को मिटाकर, सत्संग रूपी मैदान में विराजना चाहिए।
मन को मिरतक देखि के, मति माने विश्वास |
साधु तहाँ लौं भय करे, जौ लौं पिंजर साँस ||
अर्थ : मन को मृतक (शांत) देखकर यह विश्वास न करो कि वह अब धोखा नहीं देगा। असावधान होने पर वह फिर से चंचल हो सकता है इसलिए विवेकी संत मन में तब तक भय रखते हैं, जब तक शरीर में सांस चलती है।
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कबीर मिरतक देखकर, मति धरो विश्वास |
कबहुँ जागै भूत है करे पिड़का नाश ||
अर्थ : ऐ साधक! मन को शांत देखकर निडर मत हो। अन्यथा वह तुम्हारे परमार्थ में मिलकर जाग्रत होगा और तुम्हें प्रपंच में डालकर पतित करेगा।
अजहुँ तेरा सब मिटै, जो जग मानै हार |
घर में झजरा होत है, सो घर डारो जार ||
अर्थ : आज भी तेरा संकट मिट सकता है यदि संसार से हार मानकर निरभिमानी हो जा। तुम्हारे अंधकाररूपी घर में को काम, क्रोधा आदि का झगड़ा हो रहा है, उसे ज्ञान की अग्नि से जला डालो।
सत्संगति है सूप ज्यों, त्यागै फटकि असार |
कहैं कबीर गुरु नाम ले, परसै नहीं विकार ||
अर्थ : सत्संग सूप के ही समान है, वह फटक कर असार का त्याग कर देता है। तुम भी गुरु से ज्ञान लो, जिससे बुराइयां बाहर हो जाएंगी।
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब-कुछ होए।
माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होए।
अर्थ – आज के इस समय में हर किसी को जल्द-से-जल्द सफलता प्राप्त करने की चाह होती है। इस पर कबीरदास कहते हैं कि धीरज रखने से सब कुछ होता है। भले ही कोई माली किसी पेड़ को सौ घड़े पानी से सींचे लेकिन, तब भी फल तो ऋतु आने पर ही लगेगा।
बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर।।
अर्थ – कई लोगों को अपने बड़े होने अर्थात अपने गुणों पर बड़ा घमंड होता है। लेकिन जब तक व्यक्ति में विनम्रता नहीं होती उसके इन गुणों का कोई फायदा नहीं हैं। इस बात को कबीर दास ने एक उदाहरण द्वारा समझाया है। जिस प्रकार खजूर का पेड़ बहुत बड़ा होता है लेकिन उससे न तो किसी व्यक्ति को छाया मिल पाती है और न ही उसके फल किसी के हाथ आते हैं।
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलया कोय।
जो मन खोजा आपना, तो मुझसे बुरा न कोय।।
अर्थ – हर व्यक्ति की आदत होती है कि वह दूसरे व्यक्ति की कमियां या बुराइयां खोजने में लगा रहता है। इसपर कबीर दास जी कहते हैं कि अगर व्यक्ति अपने मन के अंदर झांक कर देखे तो वह पाएगा कि उससे बुरा कोई नहीं है। यहां वह कहना चाहते हैं कि बुराई सामने वाले में नहीं बल्कि हमारे नजरिए में होती है।
दुख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे, दुख काहे को होय।।
अर्थ – हर व्यक्ति केवल दुख के समय में या किसी मुसीबत में फसने के बाद ईश्वर को याद करता है, और सुख के समय में उन्हें भूल जाता है। इस पर कबीर दास जी कहते हैं कि जो यदि सुख में भी ईश्वर को याद करेगा तो उसे दुख ही क्यों होगा।