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Top 50 Best Hindi Poems l 50 प्रसिद्ध हिंदी कविताएँ l Best 50 Hindi Poems of famous poets l Hindi Kavita

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यहां, आपको साहित्यिक विरासत के प्रमुख कवियों द्वारा रचित कई प्रमुख कविताओं का चयन मिलेगा। हर कविता अपने विषय, भावना, और व्यक्तित्व के आधार पर अद्वितीय है, जिससे पठकों को उनकी अद्वितीयता और साहित्यिक गौरव का अनुभव होगा।

इस ब्लॉग (Top 50 Best Hindi Poems)में हमने विभिन्न विषयों, जैसे प्रेम, प्रेरणा, देशभक्ति, प्राकृतिक सौंदर्य, और मानवता को उजागर करने वाली कविताओं को शामिल किया है। हर कविता एक कहानी के रूप में है, जो हमें जीवन के असीम संभावनाओं की ओर ले जाती है।

इस ब्लॉग के माध्यम से, हम साहित्य के सुंदरता और गहराईयों का आनंद लेते हैं, और हम आपके साथ यह साझा करने के लिए उत्कृष्टतम कविताओं की यह सूची तैयार कर रहे हैं। इस ब्लॉग के माध्यम से, हम आपको एक अनुभव प्रदान करने का प्रयास कर रहे हैं जो साहित्य के माध्यम से आपके जीवन को और रंगीन बनाएगा। आइये, हमारे साथ सफर करें और हिंदी साहित्य के इस अद्वितीय जगत का आनंद लें।

Top 50 Best Hindi Poems l 50 प्रसिद्ध हिंदी कविताएँ

Table of Contents

नर हो, न निराश करो मन को

मैथिलीशरण गुप्त

कुछ काम करो, कुछ काम करो
जग में रह कर कुछ नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो, न निराश करो मन को

संभलो कि सुयोग न जाय चला

कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला

समझो जग को न निरा सपना

पथ आप प्रशस्त करो अपना

अखिलेश्वर है अवलंबन को

नर हो, न निराश करो मन को

जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ

फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ

तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो

उठके अमरत्व विधान करो

दवरूप रहो भव कानन को

नर हो न निराश करो मन को

निज गौरव का नित ज्ञान रहे

हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे

मरणोंत्‍तर गुंजित गान रहे

सब जाय अभी पर मान रहे

कुछ हो न तज़ो निज साधन को

नर हो, न निराश करो मन को

प्रभु ने तुमको दान किए

सब वांछित वस्तु विधान किए

तुम प्राप्‍त करो उनको न अहो

फिर है यह किसका दोष कहो

समझो न अलभ्य किसी धन को

नर हो, न निराश करो मन को 

किस गौरव के तुम योग्य नहीं

कब कौन तुम्हें सुख भोग्य नहीं

जान हो तुम भी जगदीश्वर के

सब है जिसके अपने घर के 

फिर दुर्लभ क्या उसके जन को

नर हो, न निराश करो मन को 

करके विधि वाद न खेद करो

निज लक्ष्य निरन्तर भेद करो

बनता बस उद्‌यम ही विधि है

मिलती जिससे सुख की निधि है

समझो धिक् निष्क्रिय जीवन को

नर हो, न निराश करो मन को

कुछ काम करो, कुछ काम करो


हम कौन थे, क्या हो गये हैं, और क्या होंगे अभी

मैथिलीशरण गुप्त

हम कौन थे, क्या हो गये हैं, और क्या होंगे अभी
आओ विचारें आज मिल कर, यह समस्याएं सभी

भू लोक का गौरव, प्रकृति का पुण्य लीला स्थल कहां
फैला मनोहर गिरि हिमालय, और गंगाजल कहां
संपूर्ण देशों से अधिक, किस देश का उत्कर्ष है
उसका कि जो ऋषि भूमि है, वह कौन, भारतवर्ष है

यह पुण्य भूमि प्रसिद्घ है, इसके निवासी आर्य हैं
विद्या कला कौशल्य सबके, जो प्रथम आचार्य हैं
संतान उनकी आज यद्यपि, हम अधोगति में पड़े
पर चिन्ह उनकी उच्चता के, आज भी कुछ हैं खड़े

वे आर्य ही थे जो कभी, अपने लिये जीते न थे
वे स्वार्थ रत हो मोह की, मदिरा कभी पीते न थे
वे मंदिनी तल में, सुकृति के बीज बोते थे सदा
परदुःख देख दयालुता से, द्रवित होते थे सदा

संसार के उपकार हित, जब जन्म लेते थे सभी
निश्चेष्ट हो कर किस तरह से, बैठ सकते थे कभी
फैला यहीं से ज्ञान का, आलोक सब संसार में
जागी यहीं थी, जग रही जो ज्योति अब संसार में

वे मोह बंधन मुक्त थे, स्वच्छंद थे स्वाधीन थे
सम्पूर्ण सुख संयुक्त थे, वे शांति शिखरासीन थे
मन से, वचन से, कर्म से, वे प्रभु भजन में लीन थे
विख्यात ब्रह्मानंद नद के, वे मनोहर मीन थे

हे भारत के राम जगो/Hey Bharat Ke Ram Jago

आशुतोष राणा/Ashutosh Rana

हे भारत के राम जगो, मैं तुम्हे जगाने आया हूँ,

सौ धर्मों का धर्म एक, बलिदान बताने आया हूँ ।

सुनो हिमालय कैद हुआ है, दुश्मन की जंजीरों में

आज बता दो कितना पानी, है भारत के वीरो में,

खड़ी शत्रु की फौज द्वार पर, आज तुम्हे ललकार रही,

सोये सिंह जगो भारत के, माता तुम्हे पुकार रही ।

रण की भेरी बज रही, उठो मोह निद्रा त्यागो,

पहला शीष चढाने वाले, माँ के वीर पुत्र जागो।

बलिदानों के वज्रदंड पर, देशभक्त की ध्वजा जगे,

और रण के कंकण पहने है, वो राष्ट्रभक्त की भुजा जगे ।।

अग्नि पंथ के पंथी जागो, शीष हथेली पर धरकर,

जागो रक्त के भक्त लाडले, जागो सिर के सौदागर,

खप्पर वाली काली जागे, जागे दुर्गा बर्बंडा,

और रक्त बीज का रक्त चाटने, वाली जागे चामुंडा ।

नर मुंडो की माला वाला, जगे कपाली कैलाशी,

रण की चंडी घर घर नाचे, मौत कहे प्यासी प्यासी,

रावण का वध स्वयं करूँगा, कहने वाला राम जगे,

और कौरव शेष न एक बचेगा, कहने वाला श्याम जगे ।।

परशुराम का परशु जगे, रघुनन्दन का बाण जगे ,

यदुनंदन का चक्र जगे, अर्जुन का धनुष महान जगे,

चोटी वाला चाणक्य जगे, पौरुष का पुरष महान जगे

और सेल्यूकस को कसने वाला, चन्द्रगुप्त बलवान जगे ।

हठी हमीर जगे जिसने, झुकना कभी नहीं जाना,

जगे पद्मिनी का जौहर, जागे केसरिया बाना,

देशभक्ति का जीवित झण्डा, आजादी का दीवाना,

और वह प्रताप का सिंह जगे, वो हल्दी घाटी का राणा

दक्खिन वाला जगे शिवाजी, खून शाहजी का ताजा,

मरने की हठ ठाना करते, विकट मराठो के राजा,

छत्रसाल बुंदेला जागे, पंजाबी कृपाण जगे,

दो दिन जिया शेर के माफिक, वो टीपू सुल्तान जगे ।

कनवाहे का जगे मोर्चा, जगे झाँसी की रानी,

अहमदशाह जगे लखनऊ का, जगे कुंवर सिंह बलिदानी,

कलवाहे का जगे मोर्चा, पानीपत मैदान जगे,

जगे भगत सिंह की फांसी, राजगुरु के प्राण जगे

जिसकी छोटी सी लकुटी से (बापू ), संगीने भी हार गयी,

हिटलर को जीता वे फौजेे, सात समुन्दर पार गयी,

मानवता का प्राण जगे, और भारत का अभिमान जगे,

उस लकुटि और लंगोटी वाले, बापू का बलिदान जगे।

आजादी की दुल्हन को जो, सबसे पहले चूम गया,

स्वयं कफ़न की गाँठ बाँधकर, सातों भावर घूम गया,

उस सुभाष की शान जगे, उस सुभाष की आन जगे,

ये भारत देश महान जगे, ये भारत की संतान जगे ।

क्या कहते हो मेरे भारत से चीनी टकराएंगे ?

अरे चीनी को तो हम पानी में घोल घोल पी जाएंगे,

वह बर्बर था वह अशुद्ध था, हमने उनको शुद्ध किया,

वह बर्बर था वह अशुद्ध था, हमने उनको शुद्ध किया,

हमने उनको बुद्ध दिया था, उसने हमको युद्ध दिया ।

आज बँधा है कफ़न शीष पर, जिसको आना है आ जाओ,

चाओ-माओ चीनी-मीनी, जिसमें दम हो टकराओ

जिसके रण से बनता है, रण का केसरिया बाना,

ओ कश्मीर हड़पने वाले, कान खोल सुनते जाना ।।

भारत के केसर की कीमत तो केवल सर है

कोहिनूर की कीमत जूते पांच अजर अमर हैं

रण के खेतो में जब छायेगा, अमर मृत्यु का सन्नाटा,

रण के खेतो में जब छायेगा, अमर मृत्यु का सन्नाटा,

लाशो की जब रोटी होंगी, और बारूदों का आटा,

सन सन करते वीर चलेंगे, जो बामी से फन वाला,

फिर चाहे रावलपिंडी वाले हो, या हो पेकिंग वाला ।

जो हमसे टकराएगा, वो चूर चूर हो जायेगा,

इस मिटटी को छूने वाला, मिटटी में मिल जायेगा,

मैं घर घर में इन्कलाब की, आग लगाने आया हूँ,

हे भारत के राम जगो, मैं तुम्हे जगाने आया हूं ।। 

यात्रा और यात्री

हरिवंश राय बच्चन

साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!

चल रहा है तारकों का
दल गगन में गीत गाता
चल रहा आकाश भी है
शून्य में भ्रमता-भ्रमाता

पाँव के नीचे पड़ी
अचला नहीं, यह चंचला है

एक कण भी, एक क्षण भी
एक थल पर टिक न पाता

शक्तियाँ गति की तुझे
सब ओर से घेरे हुए है
स्थान से अपने तुझे
टलना पड़ेगा ही, मुसाफिर!

साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!

थे जहाँ पर गर्त पैरों
को ज़माना ही पड़ा था
पत्थरों से पाँव के
छाले छिलाना ही पड़ा था

घास मखमल-सी जहाँ थी
मन गया था लोट सहसा

थी घनी छाया जहाँ पर
तन जुड़ाना ही पड़ा था

पग परीक्षा, पग प्रलोभन
ज़ोर-कमज़ोरी भरा तू
इस तरफ डटना उधर
ढलना पड़ेगा ही, मुसाफिर

साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!

शूल कुछ ऐसे, पगो में
चेतना की स्फूर्ति भरते
तेज़ चलने को विवश
करते, हमेशा जबकि गड़ते

शुक्रिया उनका कि वे
पथ को रहे प्रेरक बनाए

किन्तु कुछ ऐसे कि रुकने
के लिए मजबूर करते

और जो उत्साह का
देते कलेजा चीर, ऐसे
कंटकों का दल तुझे
दलना पड़ेगा ही, मुसाफिर

साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!

सूर्य ने हँसना भुलाया,
चंद्रमा ने मुस्कुराना
और भूली यामिनी भी
तारिकाओं को जगाना

एक झोंके ने बुझाया
हाथ का भी दीप लेकिन

मत बना इसको पथिक तू
बैठ जाने का बहाना

एक कोने में हृदय के
आग तेरे जग रही है,
देखने को मग तुझे
जलना पड़ेगा ही, मुसाफिर

साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!

वह कठिन पथ और कब
उसकी मुसीबत भूलती है
साँस उसकी याद करके
भी अभी तक फूलती है

यह मनुज की वीरता है
या कि उसकी बेहयाई

साथ ही आशा सुखों का
स्वप्न लेकर झूलती है

सत्य सुधियाँ, झूठ शायद
स्वप्न, पर चलना अगर है
झूठ से सच को तुझे
छलना पड़ेगा ही, मुसाफिर

साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!

है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

हरिवंशराय बच्चन

कल्पना के हाथ से कमनीय जो मंदिर बना था
भावना के हाथ ने जिसमें वितानों को तना था

स्वप्न ने अपने करों से था जिसे रुचि से सँवारा
स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से, रसों से जो सना था
ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, पत्थर, कंकड़ों को
एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

बादलों के अश्रु से धोया गया नभ-नील नीलम
का बनाया था गया मधुपात्र मनमोहक, मनोरम
प्रथम ऊषा की किरण की लालिमा-सी लाल मदिरा
थी उसी में चमचमाती नव घनों में चंचला सम
वह अगर टूटा मिलाकर हाथ की दोनों हथेली
एक निर्मल स्रोत से तृष्णा बुझाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

क्या घड़ी थी, एक भी चिंता नहीं थी पास आई
कालिमा तो दूर, छाया भी पलक पर थी न छाई
आँख से मस्ती झपकती, बात से मस्ती टपकती
थी हँसी ऐसी जिसे सुन बादलों ने शर्म खाई
वह गई तो ले गई उल्लास के आधार, माना
पर अथिरता पर समय की मुसकराना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

हाय, वे उन्माद के झोंके कि जिनमें राग जागा
वैभवों से फेर आँखें गान का वरदान माँगा
एक अंतर से ध्वनित हों दूसरे में जो निरंतर
भर दिया अंबर-अवनि को मत्तता के गीत गा-गा
अंत उनका हो गया तो मन बहलने के लिए ही
ले अधूरी पंक्ति कोई गुनगुनाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

हाय, वे साथी कि चुंबक लौह-से जो पास आए
पास क्या आए, हृदय के बीच ही गोया समाए
दिन कटे ऐसे कि कोई तार वीणा के मिलाकर
एक मीठा और प्यारा ज़िन्दगी का गीत गाए
वे गए तो सोचकर यह लौटने वाले नहीं वे
खोज मन का मीत कोई लौ लगाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

क्या हवाएँ थीं कि उजड़ा प्यार का वह आशियाना
कुछ न आया काम तेरा शोर करना, गुल मचाना
नाश की उन शक्तियों के साथ चलता ज़ोर किसका
किंतु ऐ निर्माण के प्रतिनिधि, तुझे होगा बताना
जो बसे हैं वे उजड़ते हैं प्रकृति के जड़ नियम से
पर किसी उजड़े हुए को फिर बसाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

जो बीत गई सो बात गई

हरिवंशराय बच्चन

जीवन में एक सितारा था
माना वह बेहद प्यारा था
वह डूब गया तो डूब गया
अंबर के आंगन को देखो
कितने इसके तारे टूटे
कितने इसके प्यारे छूटे
जो छूट गए फ़िर कहाँ मिले
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अंबर शोक मनाता है
जो बीत गई सो बात गई

जीवन में वह था एक कुसुम
थे उस पर नित्य निछावर तुम
वह सूख गया तो सूख गया
मधुबन की छाती को देखो
सूखी कितनी इसकी कलियाँ
मुरझाईं कितनी वल्लरियाँ
जो मुरझाईं फ़िर कहाँ खिलीं
पर बोलो सूखे फूलों पर
कब मधुबन शोर मचाता है
जो बीत गई सो बात गई

जीवन में मधु का प्याला था
तुमने तन मन दे डाला था
वह टूट गया तो टूट गया
मदिरालय का आंगन देखो
कितने प्याले हिल जाते हैं
गिर मिट्टी में मिल जाते हैं
जो गिरते हैं कब उठते हैं
पर बोलो टूटे प्यालों पर
कब मदिरालय पछताता है
जो बीत गई सो बात गई

मृदु मिट्टी के बने हुए हैं
मधु घट फूटा ही करते हैं
लघु जीवन ले कर आए हैं
प्याले टूटा ही करते हैं
फ़िर भी मदिरालय के अन्दर
मधु के घट हैं, मधु प्याले हैं
जो मादकता के मारे हैं
वे मधु लूटा ही करते हैं
वह कच्चा पीने वाला है
जिसकी ममता घट प्यालों पर
जो सच्चे मधु से जला हुआ
कब रोता है चिल्लाता है
जो बीत गई सो बात गई.

—हरिवंश राय ‘बच्चन’ (Harivansh Rai ‘Bachchan’)

अग्निपथ

वृक्ष हों भले खड़े,
हों घने हों बड़े,
एक पत्र छाँह भी,
माँग मत, माँग मत, माँग मत,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।


तू न थकेगा कभी,
तू न रुकेगा कभी,
तू न मुड़ेगा कभी,
कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।


यह महान दृश्य है,
चल रहा मनुष्य है,
अश्रु स्वेद रक्त से,
लथपथ लथपथ लथपथ,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ

मधुशाला

मृदु भावों के अंगूरों की आज बना लाया हाला,

प्रियतम, अपने ही हाथों से आज पिलाऊँगा प्याला,

पहले भोग लगा लूँ तेरा फिर प्रसाद जग पाएगा,

सबसे पहले तेरा स्वागत करती मेरी मधुशाला।।१। 

प्यास तुझे तो, विश्व तपाकर पूर्ण निकालूँगा हाला,

एक पाँव से साकी बनकर नाचूँगा लेकर प्याला,

जीवन की मधुता तो तेरे ऊपर कब का वार चुका,

आज निछावर कर दूँगा मैं तुझ पर जग की मधुशाला।।२।

प्रियतम, तू मेरी हाला है, मैं तेरा प्यासा प्याला,

अपने को मुझमें भरकर तू बनता है पीनेवाला,

मैं तुझको छक छलका करता, मस्त मुझे पी तू होता,

एक दूसरे की हम दोनों आज परस्पर मधुशाला।।३।

भावुकता अंगूर लता से खींच कल्पना की हाला,

कवि साकी बनकर आया है भरकर कविता का प्याला,

कभी न कण-भर खाली होगा लाख पिएँ, दो लाख पिएँ!

पाठकगण हैं पीनेवाले, पुस्तक मेरी मधुशाला।।४।

मधुर भावनाओं की सुमधुर नित्य बनाता हूँ हाला,

भरता हूँ इस मधु से अपने अंतर का प्यासा प्याला,

उठा कल्पना के हाथों से स्वयं उसे पी जाता हूँ,

अपने ही में हूँ मैं साकी, पीनेवाला, मधुशाला।।५।

मदिरालय जाने को घर से चलता है पीनेवला,

‘किस पथ से जाऊँ?’ असमंजस में है वह भोलाभाला,

अलग-अलग पथ बतलाते सब पर मैं यह बतलाता हूँ –

‘राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला।’। ६।

चलने ही चलने में कितना जीवन, हाय, बिता डाला!

‘दूर अभी है’, पर, कहता है हर पथ बतलानेवाला,

हिम्मत है न बढूँ आगे को साहस है न फिरुँ पीछे,

किंकर्तव्यविमूढ़ मुझे कर दूर खड़ी है मधुशाला।।७।

मुख से तू अविरत कहता जा मधु, मदिरा, मादक हाला,

हाथों में अनुभव करता जा एक ललित कल्पित प्याला,

ध्यान किए जा मन में सुमधुर सुखकर, सुंदर साकी का,

और बढ़ा चल, पथिक, न तुझको दूर लगेगी मधुशाला।।८।

मदिरा पीने की अभिलाषा ही बन जाए जब हाला,

अधरों की आतुरता में ही जब आभासित हो प्याला,

बने ध्यान ही करते-करते जब साकी साकार, सखे,

रहे न हाला, प्याला, साकी, तुझे मिलेगी मधुशाला।।९।

सुन, कलकल़ , छलछल़ मधुघट से गिरती प्यालों में हाला,

सुन, रूनझुन रूनझुन चल वितरण करती मधु साकीबाला,

बस आ पहुंचे, दुर नहीं कुछ, चार कदम अब चलना है,

चहक रहे, सुन, पीनेवाले, महक रही, ले, मधुशाला।।१०।

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हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए

दुष्यंत कुमार

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,

इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,

शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,

हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।

सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं,

मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,

हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए

कृष्ण की चेतावनी (रश्मिरथी)

रामधारी सिंह दिनकर

वर्षों तक वन में घूम-घूम,
बाधा-विघ्नों को चूम-चूम,
सह धूप-घाम, पानी-पत्थर,
पांडव आये कुछ और निखर।
सौभाग्य न सब दिन सोता है,
देखें, आगे क्या होता है।

मैत्री की राह बताने को,
सबको सुमार्ग पर लाने को,
दुर्योधन को समझाने को,
भीषण विध्वंस बचाने को,
भगवान् हस्तिनापुर आये,
पांडव का संदेशा लाये।

‘दो न्याय अगर तो आधा दो,
पर, इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम,
रक्खो अपनी धरती तमाम।
हम वहीं खुशी से खायेंगे,
परिजन पर असि न उठायेंगे!

दुर्योधन वह भी दे ना सका,
आशीष समाज की ले न सका,
उलटे, हरि को बाँधने चला,
जो था असाध्य, साधने चला।
जब नाश मनुज पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।

हरि ने भीषण हुंकार किया,
अपना स्वरूप-विस्तार किया,
डगमग-डगमग दिग्गज डोले,
भगवान् कुपित होकर बोले-
‘जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,
हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।

यह देख, गगन मुझमें लय है,
यह देख, पवन मुझमें लय है,
मुझमें विलीन झंकार सकल,
मुझमें लय है संसार सकल।
अमरत्व फूलता है मुझमें,
संहार झूलता है मुझमें।

‘उदयाचल मेरा दीप्त भाल,
भूमंडल वक्षस्थल विशाल,
भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं,
मैनाक-मेरु पग मेरे हैं।
दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर,
सब हैं मेरे मुख के अन्दर।

‘दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख,
मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख,
चर-अचर जीव, जग, क्षर-अक्षर,
नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर।
शत कोटि सूर्य, शत कोटि चन्द्र,
शत कोटि सरित, सर, सिन्धु मन्द्र।

‘शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश,
शत कोटि जिष्णु, जलपति, धनेश,
शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल,
शत कोटि दण्डधर लोकपाल।
जञ्जीर बढ़ाकर साध इन्हें,
हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें।

‘भूलोक, अतल, पाताल देख,
गत और अनागत काल देख,
यह देख जगत का आदि-सृजन,
यह देख, महाभारत का रण,
मृतकों से पटी हुई भू है,
पहचान, इसमें कहाँ तू है।

‘अम्बर में कुन्तल-जाल देख,
पद के नीचे पाताल देख,
मुट्ठी में तीनों काल देख,
मेरा स्वरूप विकराल देख।
सब जन्म मुझी से पाते हैं,
फिर लौट मुझी में आते हैं।

‘जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन,
साँसों में पाता जन्म पवन,
पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर,
हँसने लगती है सृष्टि उधर!
मैं जभी मूँदता हूँ लोचन,
छा जाता चारों ओर मरण।

‘बाँधने मुझे तो आया है,
जंजीर बड़ी क्या लाया है?
यदि मुझे बाँधना चाहे मन,
पहले तो बाँध अनन्त गगन।
सूने को साध न सकता है,
वह मुझे बाँध कब सकता है?

‘हित-वचन नहीं तूने माना,
मैत्री का मूल्य न पहचाना,
तो ले, मैं भी अब जाता हूँ,
अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ।
याचना नहीं, अब रण होगा,
जीवन-जय या कि मरण होगा।

‘टकरायेंगे नक्षत्र-निकर,
बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर,
फण शेषनाग का डोलेगा,
विकराल काल मुँह खोलेगा।
दुर्योधन! रण ऐसा होगा।
फिर कभी नहीं जैसा होगा।

‘भाई पर भाई टूटेंगे,
विष-बाण बूँद-से छूटेंगे,
वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे,
सौभाग्य मनुज के फूटेंगे।
आखिर तू भूशायी होगा,
हिंसा का पर, दायी होगा।’

थी सभा सन्न, सब लोग डरे,
चुप थे या थे बेहोश पड़े।
केवल दो नर ना अघाते थे,
धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे।
कर जोड़ खड़े प्रमुदित,
निर्भय, दोनों पुकारते थे ‘जय-जय’!

आग की भीख

रामधारी सिंह दिनकर

धुँधली हुई दिशाएँ, छाने लगा कुहासा
कुचली हुई शिखा से आने लगा धुआँसा
कोई मुझे बता दे, क्या आज हो रहा है
मुंह को छिपा तिमिर में क्यों तेज सो रहा है
दाता पुकार मेरी, संदीप्ति को जिला दे
बुझती हुई शिखा को संजीवनी पिला दे
प्यारे स्वदेश के हित अँगार माँगता हूँ
चढ़ती जवानियों का श्रृंगार मांगता हूँ

बेचैन हैं हवाएँ, सब ओर बेकली है
कोई नहीं बताता, किश्ती किधर चली है
मँझदार है, भँवर है या पास है किनारा?
यह नाश आ रहा है या सौभाग्य का सितारा?
आकाश पर अनल से लिख दे अदृष्ट मेरा
भगवान, इस तरी को भरमा न दे अँधेरा
तमवेधिनी किरण का संधान माँगता हूँ
ध्रुव की कठिन घड़ी में, पहचान माँगता हूँ

आगे पहाड़ को पा धारा रुकी हुई है
बलपुंज केसरी की ग्रीवा झुकी हुई है
अग्निस्फुलिंग रज का, बुझ डेर हो रहा है
है रो रही जवानी, अँधेर हो रहा है
निर्वाक है हिमालय, गंगा डरी हुई है
निस्तब्धता निशा की दिन में भरी हुई है
पंचास्यनाद भीषण, विकराल माँगता हूँ
जड़ताविनाश को फिर भूचाल माँगता हूँ

मन की बंधी उमंगें असहाय जल रही है
अरमान आरजू की लाशें निकल रही हैं
भीगी खुशी पलों में रातें गुज़ारते हैं
सोती वसुन्धरा जब तुझको पुकारते हैं
इनके लिये कहीं से निर्भीक तेज ला दे
पिघले हुए अनल का इनको अमृत पिला दे
उन्माद, बेकली का उत्थान माँगता हूँ
विस्फोट माँगता हूँ, तूफान माँगता हूँ

आँसू भरे दृगों में चिनगारियाँ सजा दे
मेरे शमशान में आ श्रंगी जरा बजा दे
फिर एक तीर सीनों के आरपार कर दे
हिमशीत प्राण में फिर अंगार स्वच्छ भर दे
आमर्ष को जगाने वाली शिखा नयी दे
अनुभूतियाँ हृदय में दाता, अनलमयी दे
विष का सदा लहू में संचार माँगता हूँ
बेचैन जिन्दगी का मैं प्यार माँगता हूँ

ठहरी हुई तरी को ठोकर लगा चला दे
जो राह हो हमारी उसपर दिया जला दे
गति में प्रभंजनों का आवेग फिर सबल दे
इस जाँच की घड़ी में निष्ठा कड़ी, अचल दे
हम दे चुके लहु हैं, तू देवता विभा दे
अपने अनलविशिख से आकाश जगमगा दे
प्यारे स्वदेश के हित वरदान माँगता हूँ
तेरी दया विपद् में भगवान माँगता हूँ

रश्मीरथी प्रथम सर्ग

रामधारी सिंह दिनकर

जय हो’ जग में जले जहाँ भी, नमन पुनीत अनल को,

जिस नर में भी बसे, हमारा नमन तेज को, बल को।

किसी वृन्त पर खिले विपिन में, पर, नमस्य है फूल,

सुधी खोजते नहीं, गुणों का आदि, शक्ति का मूल।

ऊँच-नीच का भेद न माने, वही श्रेष्ठ ज्ञानी है,

दया-धर्म जिसमें हो, सबसे वही पूज्य प्राणी है।

क्षत्रिय वही, भरी हो जिसमें निर्भयता की आग,

सबसे श्रेष्ठ वही ब्राह्मण है, हो जिसमें तप-त्याग।

तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतला के,

पाते हैं जग में प्रशस्ति अपना करतब दिखला के।

हीन मूल की ओर देख जग गलत कहे या ठीक,

वीर खींच कर ही रहते हैं इतिहासों में लीक।

जिसके पिता सूर्य थे, माता कुन्ती सती कुमारी,

उसका पलना हुआ धार पर बहती हुई पिटारी।

सूत-वंश में पला, चखा भी नहीं जननि का क्षीर,

निकला कर्ण सभी युवकों में तब भी अद्‌भुत वीर।

तन से समरशूर, मन से भावुक, स्वभाव से दानी,

जाति-गोत्र का नहीं, शील का, पौरुष का अभिमानी।

ज्ञान-ध्यान, शस्त्रास्त्र, शास्त्र का कर सम्यक् अभ्यास,

अपने गुण का किया कर्ण ने आप स्वयं सुविकास।

अलग नगर के कोलाहल से, अलग पुरी-पुरजन से,

कठिन साधना में उद्योगी लगा हुआ तन-मन से।

निज समाधि में निरत, सदा निज कर्मठता में चूर,

वन्यकुसुम-सा खिला कर्ण, जग की आँखों से दूर।

नहीं फूलते कुसुम मात्र राजाओं के उपवन में,

अमित बार खिलते वे पुर से दूर कुञ्ज-कानन में।

समझे कौन रहस्य ? प्रकृति का बड़ा अनोखा हाल,

गुदड़ी में रखती चुन-चुन कर बड़े कीमती लाल।

जलद-पटल में छिपा, किन्तु रवि कब तक रह सकता है?

युग की अवहेलना शूरमा कब तक सह सकता है?

पाकर समय एक दिन आखिर उठी जवानी जाग,

फूट पड़ी सबके समक्ष पौरुष की पहली आग।

रंग-भूमि में अर्जुन था जब समाँ अनोखा बाँधे,

बढ़ा भीड़-भीतर से सहसा कर्ण शरासन साधे।

कहता हुआ, ‘तालियों से क्या रहा गर्व में फूल?

अर्जुन! तेरा सुयश अभी क्षण में होता है धूल।’

‘तूने जो-जो किया, उसे मैं भी दिखला सकता हूँ,

चाहे तो कुछ नयी कलाएँ भी सिखला सकता हूँ।

आँख खोल कर देख, कर्ण के हाथों का व्यापार,

फूले सस्ता सुयश प्राप्त कर, उस नर को धिक्कार।’

इस प्रकार कह लगा दिखाने कर्ण कलाएँ रण की,

सभा स्तब्ध रह गयी, गयी रह आँख टँगी जन-जन की।

मन्त्र-मुग्ध-सा मौन चतुर्दिक् जन का पारावार,

गूँज रही थी मात्र कर्ण की धन्वा की टंकार।

फिरा कर्ण, त्यों ‘साधु-साधु’ कह उठे सकल नर-नारी,

राजवंश के नेताओं पर पड़ी विपद् अति भारी।

द्रोण, भीष्म, अर्जुन, सब फीके, सब हो रहे उदास,

एक सुयोधन बढ़ा, बोलते हुए, ‘वीर! शाबाश !’

द्वन्द्व-युद्ध के लिए पार्थ को फिर उसने ललकारा,

अर्जुन को चुप ही रहने का गुरु ने किया इशारा।

कृपाचार्य ने कहा- ‘सुनो हे वीर युवक अनजान’

भरत-वंश-अवतंस पाण्डु की अर्जुन है संतान।

‘क्षत्रिय है, यह राजपुत्र है, यों ही नहीं लड़ेगा,

जिस-तिस से हाथापाई में कैसे कूद पड़ेगा?

अर्जुन से लड़ना हो तो मत गहो सभा में मौन,

नाम-धाम कुछ कहो, बताओ कि तुम जाति हो कौन?’

‘जाति! हाय री जाति !’ कर्ण का हृदय क्षोभ से डोला,

कुपित सूर्य की ओर देख वह वीर क्रोध से बोला

‘जाति-जाति रटते, जिनकी पूँजी केवल पाषंड,

मैं क्या जानूँ जाति ? जाति हैं ये मेरे भुजदंड।

‘ऊपर सिर पर कनक-छत्र, भीतर काले-के-काले,

शरमाते हैं नहीं जगत् में जाति पूछनेवाले।

सूत्रपुत्र हूँ मैं, लेकिन थे पिता पार्थ के कौन?

साहस हो तो कहो, ग्लानि से रह जाओ मत मौन।

‘मस्तक ऊँचा किये, जाति का नाम लिये चलते हो,

पर, अधर्ममय शोषण के बल से सुख में पलते हो।

अधम जातियों से थर-थर काँपते तुम्हारे प्राण,

छल से माँग लिया करते हो अंगूठे का दान।

पूछो मेरी जाति, शक्ति हो तो, मेरे भुजबल से’

रवि-समान दीपित ललाट से और कवच-कुण्डल से,

पढ़ो उसे जो झलक रहा है मुझमें तेज-प़काश,

मेरे रोम-रोम में अंकित है मेरा इतिहास।

‘अर्जुन बङ़ा वीर क्षत्रिय है, तो आगे वह आवे,

क्षत्रियत्व का तेज जरा मुझको भी तो दिखलावे।

अभी छीन इस राजपुत्र के कर से तीर-कमान,

अपनी महाजाति की दूँगा मैं तुमको पहचान।’

कृपाचार्य ने कहा ‘ वृथा तुम क्रुद्ध हुए जाते हो,

साधारण-सी बात, उसे भी समझ नहीं पाते हो।

राजपुत्र से लड़े बिना होता हो अगर अकाज,

अर्जित करना तुम्हें चाहिये पहले कोई राज।’

कर्ण हतप्रभ हुआ तनिक, मन-ही-मन कुछ भरमाया,

सह न सका अन्याय, सुयोधन बढ़कर आगे आया।

बोला-‘ बड़ा पाप है करना, इस प्रकार, अपमान,

उस नर का जो दीप रहा हो सचमुच, सूर्य समान।

‘मूल जानना बड़ा कठिन है नदियों का, वीरों का,

धनुष छोड़ कर और गोत्र क्या होता रणधीरों का?

पाते हैं सम्मान तपोबल से भूतल पर शूर,

‘जाति-जाति’ का शोर मचाते केवल कायर क्रूर।

‘किसने देखा नहीं, कर्ण जब निकल भीड़ से आया,

अनायास आतंक एक सम्पूर्ण सभा पर छाया।

कर्ण भले ही सूत्रोपुत्र हो, अथवा श्वपच, चमार,

मलिन, मगर, इसके आगे हैं सारे राजकुमार।

‘करना क्या अपमान ठीक है इस अनमोल रतन का,

मानवता की इस विभूति का, धरती के इस धन का।

बिना राज्य यदि नहीं वीरता का इसको अधिकार,

तो मेरी यह खुली घोषणा सुने सकल संसार।

‘अंगदेश का मुकुट कर्ण के मस्तक पर धरता हूँ।

एक राज्य इस महावीर के हित अर्पित करता हूँ।’

रखा कर्ण के सिर पर उसने अपना मुकुट उतार,

गूँजा रंगभूमि में दुर्योधन का जय-जयकार।

कर्ण चकित रह गया सुयोधन की इस परम कृपा से,

फूट पड़ा मारे कृतज्ञता के भर उसे भुजा से।

दुर्योधन ने हृदय लगा कर कहा-‘बन्धु! हो शान्त,

मेरे इस क्षुद्रोपहार से क्यों होता उद्‌भ्रान्त?

‘किया कौन-सा त्याग अनोखा, दिया राज यदि तुझको!

अरे, धन्य हो जायँ प्राण, तू ग्रहण करे यदि मुझको ।’

कर्ण और गल गया,’ हाय, मुझ पर भी इतना स्नेह!

वीर बन्धु! हम हुए आज से एक प्राण, दो देह।

‘भरी सभा के बीच आज तूने जो मान दिया है,

पहले-पहल मुझे जीवन में जो उत्थान दिया है।

उऋण भला होऊँगा उससे चुका कौन-सा दाम?

कृपा करें दिनमान कि आऊँ तेरे कोई काम।’

घेर खड़े हो गये कर्ण को मुदित, मुग्ध पुरवासी,

होते ही हैं लोग शूरता-पूजन के अभिलाषी।

चाहे जो भी कहे द्वेष, ईर्ष्या, मिथ्या अभिमान,

जनता निज आराध्य वीर को, पर लेती पहचान।

लगे लोग पूजने कर्ण को कुंकुम और कमल से,

रंग-भूमि भर गयी चतुर्दिक् पुलकाकुल कलकल से।

विनयपूर्ण प्रतिवन्दन में ज्यों झुका कर्ण सविशेष,

जनता विकल पुकार उठी, ‘जय महाराज अंगेश।

‘महाराज अंगेश!’ तीर-सा लगा हृदय में जा के,

विफल क्रोध में कहा भीम ने और नहीं कुछ पा के।

‘हय की झाड़े पूँछ, आज तक रहा यही तो काज,

सूत-पुत्र किस तरह चला पायेगा कोई राज?’

दुर्योधन ने कहा-‘भीम ! झूठे बकबक करते हो,

कहलाते धर्मज्ञ, द्वेष का विष मन में धरते हो।

बड़े वंश से क्या होता है, खोटे हों यदि काम?

नर का गुण उज्जवल चरित्र है, नहीं वंश-धन-धान।

‘सचमुच ही तो कहा कर्ण ने, तुम्हीं कौन हो, बोलो,

जन्मे थे किस तरह? ज्ञात हो, तो रहस्य यह खोलो?

अपना अवगुण नहीं देखता, अजब जगत् का हाल,

निज आँखों से नहीं सुझता, सच है अपना भाल।

कृपाचार्य आ पड़े बीच में, बोले ‘छिः! यह क्या है?

तुम लोगों में बची नाम को भी क्या नहीं हया है?

चलो, चलें घर को, देखो; होने को आयी शाम,

थके हुए होगे तुम सब, चाहिए तुम्हें आराम।’

रंग-भूमि से चले सभी पुरवासी मोद मनाते,

कोई कर्ण, पार्थ का कोई-गुण आपस में गाते।

सबसे अलग चले अर्जुन को लिए हुए गुरु द्रोण,

कहते हुए -‘पार्थ! पहुँचा यह राहु नया फिर कौन?

‘जन्मे नहीं जगत् में अर्जुन! कोई प्रतिबल तेरा,

टँगा रहा है एक इसी पर ध्यान आज तक मेरा।

एकलव्य से लिया अँगूठा, कढ़ी न मुख से आह,

रखा चाहता हूँ निष्कंटक बेटा! तेरी राह।

‘मगर, आज जो कुछ देखा, उससे धीरज हिलता है,

मुझे कर्ण में चरम वीरता का लक्षण मिलता है।

बढ़ता गया अगर निष्कंटक यह उद्‌भट भट बांल,

अर्जुन! तेरे लिये कभी यह हो सकता है काल!

‘सोच रहा हूँ क्या उपाय, मैं इसके साथ करूँगा,

इस प्रचंडतम धूमकेतु का कैसे तेज हरूँगा?

शिष्य बनाऊँगा न कर्ण को, यह निश्चित है बात;

रखना ध्यान विकट प्रतिभट का, पर तू भी हे तात!’

रंग-भूमि से लिये कर्ण को, कौरव शंख बजाते,

चले झूमते हुए खुशी में गाते, मौज मनाते।

कञ्चन के युग शैल-शिखर-सम सुगठित, सुघर सुवर्ण,

गलबाँही दे चले परस्पर दुर्योधन औ’ कर्ण।

बड़ी तृप्ति के साथ सूर्य शीतल अस्ताचल पर से,

चूम रहे थे अंग पुत्र का स्निग्ध-सुकोमल कर से।

आज न था प्रिय उन्हें दिवस का समय सिद्ध अवसान,

विरम गया क्षण एक क्षितिज पर गति को छोड़ विमान।

और हाय, रनिवास चला वापस जब राजभवन को,

सबके पीछे चली एक विकला मसोसती मन को।

उजड़ गये हों स्वप्न कि जैसे हार गयी हो दाँव,

नहीं उठाये भी उठ पाते थे कुन्ती के पाँव।

किसको नमन करूँ मैं भारत?

रामधारी सिंह दिनकर

तुझको या तेरे नदीश, गिरि, वन को नमन करूँ, मैं ?
मेरे प्यारे देश ! देह या मन को नमन करूँ मैं ?
किसको नमन करूँ मैं भारत ? किसको नमन करूँ मैं ?

भू के मानचित्र पर अंकित त्रिभुज, यही क्या तू है ?
नर के नभश्चरण की दृढ़ कल्पना नहीं क्या तू है ?
भेदों का ज्ञाता, निगूढ़ताओं का चिर ज्ञानी है
मेरे प्यारे देश ! नहीं तू पत्थर है, पानी है
जड़ताओं में छिपे किसी चेतन को नमन करूँ मैं ?

भारत नहीं स्थान का वाचक, गुण विशेष नर का है
एक देश का नहीं, शील यह भूमंडल भर का है
जहाँ कहीं एकता अखंडित, जहाँ प्रेम का स्वर है
देश-देश में वहाँ खड़ा भारत जीवित भास्कर है
निखिल विश्व को जन्मभूमि-वंदन को नमन करूँ मैं !

खंडित है यह मही शैल से, सरिता से सागर से
पर, जब भी दो हाथ निकल मिलते आ द्वीपांतर से
तब खाई को पाट शून्य में महामोद मचता है
दो द्वीपों के बीच सेतु यह भारत ही रचता है
मंगलमय यह महासेतु-बंधन को नमन करूँ मैं !

दो हृदय के तार जहाँ भी जो जन जोड़ रहे हैं
मित्र-भाव की ओर विश्व की गति को मोड़ रहे हैं
घोल रहे हैं जो जीवन-सरिता में प्रेम-रसायन
खोर रहे हैं देश-देश के बीच मुँदे वातायन
आत्मबंधु कहकर ऐसे जन-जन को नमन करूँ मैं !

उठे जहाँ भी घोष शांति का, भारत, स्वर तेरा है
धर्म-दीप हो जिसके भी कर में वह नर तेरा है
तेरा है वह वीर, सत्य पर जो अड़ने आता है
किसी न्याय के लिए प्राण अर्पित करने जाता है
मानवता के इस ललाट-वंदन को नमन करूँ मैं !

मानव जब जोर लगाता है, पत्थर पानी बन जाता है

रामधारी सिंह दिनकर

सच है, विपत्ति जब आती है,

कायर को ही दहलाती है,

शूरमा नहीं विचलित होते,

क्षण एक नहीं धीरज खोते,

विघ्नों को गले लगाते हैं,

काँटों में राह बनाते हैं।

मुख से न कभी उफ कहते हैं,

संकट का चरण न गहते हैं,

जो आ पड़ता सब सहते हैं,

उद्योग-निरत नित रहते हैं,

शूलों का मूल नसाने को,

बढ़ खुद विपत्ति पर छाने को।

है कौन विघ्न ऐसा जग में,

टिक सके वीर नर के मग में

खम ठोंक ठेलता है जब नर,

पर्वत के जाते पाँव उखड़।

मानव जब जोर लगाता है,

पत्थर पानी बन जाता है।

गुण बड़े एक से एक प्रखर,

हैं छिपे मानवों के भीतर,

मेंहदी में जैसे लाली हो,

वर्तिका-बीच उजियाली हो।

बत्ती जो नहीं जलाता है

रोशनी नहीं वह पाता है।

पीसा जाता जब इक्षु-दण्ड,

झरती रस की धारा अखण्ड,

मेंहदी जब सहती है प्रहार,

बनती ललनाओं का सिंगार।

जब फूल पिरोये जाते हैं,

हम उनको गले लगाते हैं।

वसुधा का नेता कौन हुआ?

भूखण्ड-विजेता कौन हुआ?

अतुलित यश क्रेता कौन हुआ?

नव-धर्म प्रणेता कौन हुआ?

जिसने न कभी आराम किया,

विघ्नों में रहकर नाम किया।

जब विघ्न सामने आते हैं,

सोते से हमें जगाते हैं,

मन को मरोड़ते हैं पल-पल,

तन को झँझोरते हैं पल-पल।

सत्पथ की ओर लगाकर ही,

जाते हैं हमें जगाकर ही।

वाटिका और वन एक नहीं,

आराम और रण एक नहीं।

वर्षा, अंधड़, आतप अखंड,

पौरुष के हैं साधन प्रचण्ड।

वन में प्रसून तो खिलते हैं,

बागों में शाल न मिलते हैं।

कङ्करियाँ जिनकी सेज सुघर,

छाया देता केवल अम्बर,

विपदाएँ दूध पिलाती हैं,

लोरी आँधियाँ सुनाती हैं।

जो लाक्षा-गृह में जलते हैं,

वे ही शूरमा निकलते हैं।

बढ़कर विपत्तियों पर छा जा,

मेरे किशोर! मेरे ताजा!

जीवन का रस छन जाने दे,

तन को पत्थर बन जाने दे।

तू स्वयं तेज भयकारी है,

क्या कर सकती चिनगारी है?

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है

रामधारी सिंह ‘दिनकर

सदियों की ठण्डी-बुझी राख सुगबुगा उठी, 

मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है; 

दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, 

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है ।

जनता ? हाँ, मिट्टी की अबोध मूरतें वही, 

जाड़े-पाले की कसक सदा सहनेवाली, 

जब अँग-अँग में लगे साँप हो चूस रहे 

तब भी न कभी मुँह खोल दर्द कहनेवाली । 

जनता ? हाँ, लम्बी-बडी जीभ की वही कसम, 

“जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।” 

“सो ठीक, मगर, आखिर, इस पर जनमत क्या है ?” 

‘है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है ?” 

मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं, 

जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में; 

अथवा कोई दूधमुँही जिसे बहलाने के 

जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में । 

लेकिन होता भूडोल, बवण्डर उठते हैं, 

जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है; 

दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, 

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है । 


हुँकारों से महलों की नींव उखड़ जाती, 

साँसों के बल से ताज हवा में उड़ता है, 

जनता की रोके राह, समय में ताव कहाँ ? 

वह जिधर चाहती, काल उधर ही मुड़ता है । 

अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अन्धकार 

बीता; गवाक्ष अम्बर के दहके जाते हैं; 

यह और नहीं कोई, जनता के स्वप्न अजय 

चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं । 

सब से विराट जनतन्त्र जगत का आ पहुँचा, 

तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो 

अभिषेक आज राजा का नहीं, प्रजा का है, 

तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो । 

आरती लिए तू किसे ढूँढ़ता है मूरख, 

मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में ? 

देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे, 

देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में । 

फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं, 

धूसरता सोने से शृँगार सजाती है; 

दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, 

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है ।

मेहनत की लूट

अवतार सिंह ‘पाश’

मेहनत की लूट सबसे खतरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे खतरनाक नहीं होती
गद्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे खतरनाक नहीं होती

बैठे-बिठाए पकड़े जाना, बुरा तो है
सहमी-सी चुप में जकड़े जाना, बुरा तो है
पर सबसे खतरनाक नहीं होता

कपट के शोर में
सही होते हुए भी दब जाना, बुरा तो है
जुगनुओं की लौ में पढ़ना, बुरा तो है
मुट्ठियां भींचकर बस वक्त निकाल लेना, बुरा तो है
सबसे खतरनाक नहीं होता

सबसे खतरनाक होता है
मुर्दा शांति से भर जाना
तड़प का न होना सब सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर जाना
सबसे खतरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जा

सबसे खतरनाक वो घड़ी होती है
आपकी कलाई पर चलती हुई भी जो
आपकी नजर में रुकी होती है
सबसे खतरनाक वो आंख होती है
जो सबकुछ देखती हुई जमी बर्फ होती है
जिसकी नजर दुनिया को मोहब्बत से चूमना भूल जाती है
जो चीजों से उठती अंधेपन की भाप पर ढुलक जाती है
जो रोजमर्रा के क्रम को पीती हुई
एक लक्ष्यहीन दोहरासबसे खतरनाक वो चांद होता है

जो हर क़त्ल, हर कांड के बाद
वीरान हुए आंगन में चढ़ता है
लेकिन आपकी आंखों में मिर्चों की तरह नहीं गड़ता है

सबसे खतरनाक वो गीत होता है
आपके कानों तक पहुंचने के लिए
जो मरसिए पढ़ता है
आतंकित लोगों के दरवाजों पर
जो गुंडों की तरह अकड़ता है
सबसे खतरनाक वह रात होती है
जो ज़िंदा रूह के आसमानों पर ढलती है
जिसमें सिर्फ उल्लू बोलते और हुआं हुआं करते गीदड़
हमेशा के अंधेरे बंद दरवाजों-चौखटों पर चिपक जाते हैं

सबसे खतरनाक वो दिशा होती है
जिसमें आत्मा का सूरज डूब जाए
और जिसकी मुर्दा धूप का कोई टुकड़ा
आपके जिस्म के पूरब में चुभ जाए

मेहनत की लूट सबसे खतरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे खतरनाक नहीं होती
गद्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे खतरनाक नहीं होती

जो डलहौज़ी न कर पाया वो ये हुक्काम कर देंगे/कमीशन दो तो हिंदुस्तान को नीलाम कर देंगे

अदम गोंडवी

जो डलहौज़ी न कर पाया वो ये हुक्काम कर देंगे

कमीशन दो तो हिंदुस्तान को नीलाम कर देंगे

सुरा व सुंदरी के शौक़ में डूबे हुए रहबर

दिल्ली को रंगीलेशाह का हम्माम कर देंगे

ये वंदेमातरम् का गीत गाते हैं सुबह उठकर

मगर बाज़ार में चीज़ों का दुगना दाम कर देंगे

सदन को घूस देकर बच गई कुर्सी तो देखोगे

अगली योजना में घूसख़ोरी आम कर देंगे

मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको

अदम गोंडवी

आइए महसूस करिए जिंदगी के ताप को

मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको

जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर

मर गई फुलिया बिचारी इक कुएँ में डूब कर

है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी

आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी

चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा

मैं इसे कहता हूँ सरजू पार की मोनालिसा

कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई

लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई

कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है

जानते हो इसकी ख़ामोशी का कारण कौन है

थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को

सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को

डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से

घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से

आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में

क्या पता उसको कि कोई भेड़िया है घात में

होनी से बेख़बर कृष्ना बेख़बर राहों में थी

मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाँहों में थी

चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई

छटपटाई पहले, फिर ढीली पड़ी, फिर ढह गई

दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया

वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया

और उस दिन ये हवेली हँस रही थी मौज में

होश में आई तो कृष्ना थी पिता की गोद में

जुड़ गई थी भीड़ जिसमें ज़ोर था सैलाब था

जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था

बढ़ के मंगल ने कहा, ‘काका, तू कैसे मौन है

पूछ तो बेटी से आख़िर वो दरिंदा कौन है

कोई हो संघर्ष से हम पाँव मोड़ेंगे नहीं

कच्चा खा जाएँगे ज़िंदा उनको छोडेंगे नहीं

कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें

और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुँह काला करें’

बोला कृष्ना से – ‘बहन, सो जा मेरे अनुरोध से

बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से’

पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में

वे इकट्ठे हो गए सरपंच के दालान में

दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लंबी नोक पर

देखिए सुखराज सिंह बोले हैं खैनी ठोंक कर

‘क्या कहें सरपंच भाई! क्या ज़माना आ गया

कल तलक जो पाँव के नीचे था रुतबा पा गया

कहती है सरकार कि आपस में मिलजुल कर रहो

सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो

देखिए ना यह जो कृष्ना है चमारों के यहाँ

पड़ गया है सीप का मोती गँवारों के यहाँ

जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है

न पुट्ठे पे हाथ रखने देती है, मगरूर है

भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ

फिर कोई बाँहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ

आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गई

जाने-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गई

वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गई

वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही

जानते हैं आप मंगल एक ही मक्कार है

हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है

कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की

गाँव की गलियों में क्या इज्जत रहेगी आपकी’

बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया

हाथ मूँछों पर गए माहौल भी सन्ना गया

क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था

हाँ, मगर होनी को तो कुछ और ही मंज़ूर था

रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुरज़ोर था

भोर होते ही वहाँ का दृश्य बिलकुल और था

सिर पे टोपी बेंत की लाठी सँभाले हाथ में

एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में

घेर कर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने –

‘जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने’

निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोल कर

इक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ कर

गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया

सुन पड़ा फिर, ‘माल वो चोरी का तूने क्या किया?’

‘कैसी चोरी माल कैसा?’ उसने जैसे ही कहा

एक लाठी फिर पड़ी बस, होश फिर जाता रहा

होश खो कर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर

ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर –

“मेरा मुँह क्या देखते हो! इसके मुँह में थूक दो

आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूँक दो”

और फिर प्रतिशोध की आँधी वहाँ चलने लगी

बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी

दुधमुँहा बच्चा व बुड्ढा जो वहाँ खेड़े में था

वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था

घर को जलते देख कर वे होश को खोने लगे

कुछ तो मन ही मन मगर कुछ ज़ोर से रोने लगे

‘कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएँ नहीं

हुक्म जब तक मैं न दूँ कोई कहीं जाए नहीं’

यह दरोगा जी थे मुँह से शब्द झरते फूल-से

आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से

फिर दहाड़े, ‘इनको डंडों से सुधारा जाएगा

ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा’

इक सिपाही ने कहा, ‘साइकिल किधर को मोड़ दें

होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें’

बोला थानेदार, ‘मुर्गे की तरह मत बाँग दो

होश में आया नहीं तो लाठियों पर टाँग लो

ये समझते हैं कि ठाकुर से उलझना खेल है

ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है जेल है’

पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल

‘कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्ना का हाल’

उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को

सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को

धर्म, संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को

प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को

मैं निमंत्रण दे रहा हूँ आएँ मेरे गाँव में

तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छाँव में

गाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही

या अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा रही

हैं तरसते कितने ही मंगल लँगोटी के लिए

बेचती हैं जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए!

तुम्हारी फ़ाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है

अदम गोंडवी

तुम्हारी फ़ाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है

मगर ये आँकड़ें झूठे हैं ये दावा किताबी है

उधर जम्हूरियत ढोल पीटे जा रहे हैं वो

इधर पर्दे के पीछे बर्बरीयत है नवाबी है

लगी है होड़-सी देखो अमीरी और ग़रीबी में

ये पूँजीवाद के ढाँचे की बुनियादी ख़राबी है

तुम्हारी मेज़ चाँदी की तुम्हारे जाम सोने के

यहाँ ज़ुम्मन के घर में आज भी फूटी रक़ाबी है 

हाकिम को इक चिट्ठी लिक्खो/Haakim Ko Ik Chitthi Likkho Sab Ke Sab

Varun Anand

हाकिम को इक चिट्ठी लिक्खो, सब के सब

और उसमे बस इतना लिखना, लानत है

इस से बढकर उस पर लानत क्या होगी

बोल रहा है बच्चा-बच्चा, लानत है !

जिस दीवार पे उसके वादे लिक्खे थे

हमने उसके नीचे लिक्खा, लानत है !

सामने का वह सब

विनय दुबे

आप कहते हैं

सामने एक पेड़ है

चलिए मैं माने लेता हूँ

कि सामने एक पेड़ है

हालाँकि जो नहीं है

आप कहते हैं

सामने एक नदी है

चलिए मैं माने लेता हूँ

कि सामने एक नदी है

हालाँकि जो नहीं है

आप कहते हैं

सामने एक स्त्री है

चलिए मैं माने लेता हूँ

कि सामने एक स्त्री है

हालाँकि जो नहीं है

यों आप कहते हैं

यों मैं माने लेता हूँ

वरना क्या आप

और क्या आपका कहना

वो तो माननीय प्रधानमंत्री जी हैं

और मामला राष्ट्रीयता का है

जो मैं माने लेता हूँ

सामने का वह सब

जो नहीं है

तुम चलो तो सही

नरेंद्र वर्मा

राह में मुश्किल होगी हजार,

तुम दो कदम बढाओ तो सही,

हो जाएगा हर सपना साकार,

तुम चलो तो सही, तुम चलो तो सही।

मुश्किल है पर इतना भी नहीं,

कि तू कर ना सके,

दूर है मंजिल लेकिन इतनी भी नहीं,

कि तु पा ना सके,

तुम चलो तो सही, तुम चलो तो सही।

एक दिन तुम्हारा भी नाम होगा,

तुम्हारा भी सत्कार होगा,

तुम कुछ लिखो तो सही,

तुम कुछ आगे पढ़ो तो सही,

तुम चलो तो सही, तुम चलो तो सही।

सपनों के सागर में कब तक गोते लगाते रहोगे,

तुम एक राह चुनो तो सही,

तुम उठो तो सही, तुम कुछ करो तो सही,

तुम चलो तो सही, तुम चलो तो सही।

कुछ ना मिला तो कुछ सीख जाओगे,

जिंदगी का अनुभव साथ ले जाओगे,

गिरते पड़ते संभल जाओगे,

फिर एक बार तुम जीत जाओगे।

तुम चलो तो सही, तुम चलो तो सही।

प्रेम

शमशेर बहादुर सिंह

द्रव्य नहीं कुछ मेरे पास

फिर भी मैं करता हूँ प्यार

रूप नहीं कुछ मेरे पास

फिर भी मैं करता हूँ प्यार

सांसारिक व्यवहार न ज्ञान

फिर भी मैं करता हूँ प्यार

शक्ति न यौवन पर अभिमान

फिर भी मैं करता हूँ प्यार

कुशल कलाविद् हूँ न प्रवीण

फिर भी मैं करता हूँ प्यार

केवल भावुक दीन मलीन

फिर भी मैं करता हूँ प्यार।

मैंने कितने किए उपाय

किंतु न मुझसे छूटा प्रेम

सब विधि था जीवन असहाय

किंतु न मुझसे छूटा प्रेम

सब कुछ साधा, जप, तप, मौन,

किंतु न मुझसे छूटा प्रेम

कितना घूमा देश-विदेश

किंतु न मुझसे छूटा प्रेम

तरह-तरह के बदले वेष

किंतु न मुझसे छूटा प्रेम।

उसकी बात-बात में छल है

फिर भी है वह अनुपम सुंदर

माया ही उसका संबल है

फिर भी है वह अनुपम सुंदर

वह वियोग का बादल मेरा

फिर भी है वह अनुपम सुंदर

छाया जीवन आकुल मेरा

फिर भी है वह अनुपम सुंदर

केवल कोमल, अस्थिर नभ-सी

फिर भी है वह अनुपम सुंदर

वह अंतिम भय-सी, विस्मय-सी

फिर भी है वह अनुपम सुंदर।

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार

शिवमंगल सिंह सुमन

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार

आज सिन्धु ने विष उगला है
लहरों का यौवन मचला है
आज ह्रदय में और सिन्धु में
साथ उठा है ज्वार

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार

लहरों के स्वर में कुछ बोलो
इस अंधड में साहस तोलो
कभी-कभी मिलता जीवन में
तूफानों का प्यार

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार

यह असीम, निज सीमा जाने
सागर भी तो यह पहचाने
मिट्टी के पुतले मानव ने
कभी ना मानी हार

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार

सागर की अपनी क्षमता है
पर माँझी भी कब थकता है
जब तक साँसों में स्पन्दन है
उसका हाथ नहीं रुकता है
इसके ही बल पर कर डाले
सातों सागर पार

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार ।।

हम पंछी उन्मुक्त गगन के

शिवमंगल सिंह सुमन

हम पंछी उन्मुक्त गगन के
पिंजरबद्ध न गा पाऍंगे
कनक-तीलियों से टकराकर
पुलकित पंख टूट जाऍंगे ।

हम बहता जल पीनेवाले
मर जाऍंगे भूखे-प्यासे
कहीं भली है कटुक निबोरी
कनक-कटोरी की मैदा से ।

स्वर्ण-श्रृंखला के बंधन में
अपनी गति, उड़ान सब भूले
बस सपनों में देख रहे हैं
तरू की फुनगी पर के झूले ।

ऐसे थे अरमान कि उड़ते
नील गगन की सीमा पाने
लाल किरण-सी चोंच खोल
चुगते तारक-अनार के दाने ।

होती सीमाहीन क्षितिज से
इन पंखों की होड़ा-होड़ी
या तो क्षितिज मिलन बन जाता
या तनती सॉंसों की डोरी ।

नीड़ न दो, चाहे टहनी का
आश्रय छिन्न-भिन्न कर डालो
लेकिन पंख दिए हैं तो
आकुल उड़ान में विघ्न न डालो ।

बदनाम रहे बटमार मगर, घर तो रखवालों ने लूटा

गोपाल सिंह नेपाली

बदनाम रहे बटमार मगर, घर तो रखवालों ने लूटा
मेरी दुल्हन-सी रातों को, नौ लाख सितारों ने लूटा

दो दिन के रैन बसेरे की,
हर चीज़ चुराई जाती है
दीपक तो अपना जलता है,
पर रात पराई होती है
गलियों से नैन चुरा लाए
तस्वीर किसी के मुखड़े की
रह गए खुले भर रात नयन, दिल तो दिलदारों ने लूटा
मेरी दुल्हन-सी रातों को, नौ लाख सितारों ने लूटा

शबनम-सा बचपन उतरा था,
तारों की गुमसुम गलियों में
थी प्रीति-रीति की समझ नहीं,
तो प्यार मिला था छलियों से
बचपन का संग जब छूटा तो
नयनों से मिले सजल नयना
नादान नये दो नयनों को, नित नये बजारों ने लूटा
मेरी दुल्हन-सी रातों को, नौ लाख सितारों ने लूटा

हर शाम गगन में चिपका दी,
तारों के अक्षर की पाती
किसने लिक्खी, किसको लिक्खी,
देखी तो पढ़ी नहीं जाती
कहते हैं यह तो किस्मत है
धरती के रहनेवालों की
पर मेरी किस्मत को तो इन, ठंडे अंगारों ने लूटा
मेरी दुल्हन-सी रातों को, नौ लाख सितारों ने लूटा

अब जाना कितना अंतर है,
नज़रों के झुकने-झुकने में
हो जाती है कितनी दूरी,
थोड़ा-सी रुकने-रुकने में
मुझ पर जग की जो नज़र झुकी
वह ढाल बनी मेरे आगे
मैंने जब नज़र झुकाई तो, फिर मुझे हज़ारों ने लूटा
मेरी दुल्हन-सी रातों को नौ लाख सितारों ने लूटा

यह दिया बुझे नहीं

गोपाल सिंह नेपाली

यह दिया बुझे नहीं

घोर अंधकार हो
चल रही बयार हो
आज द्वार–द्वार पर यह दिया बुझे नहीं
यह निशीथ का दिया ला रहा विहान है।

शक्ति का दिया हुआ
शक्ति को दिया हुआ
भक्ति से दिया हुआ
यह स्वतंत्रता–दिया

रूक रही न नाव हो
जोर का बहाव हो
आज गंग–धार पर यह दिया बुझे नहीं
यह स्वदेश का दिया प्राण के समान है।

यह अतीत कल्पना
यह विनीत प्रार्थना
यह पुनीत भावना
यह अनंत साधना

शांति हो, अशांति हो
युद्ध, संधि, क्रांति हो
तीर पर¸ कछार पर¸ यह दिया बुझे नहीं
देश पर, समाज पर, ज्योति का वितान है।

तीन–चार फूल है
आस–पास धूल है
बांस है –बबूल है
घास के दुकूल है

वायु भी हिलोर दे
फूंक दे, चकोर दे
कब्र पर मजार पर, यह दिया बुझे नहीं
यह किसी शहीद का पुण्य–प्राण दान है।

झूम–झूम बदलियाँ
चूम–चूम बिजलियाँ
आंधिया उठा रहीं
हलचलें मचा रहीं

लड़ रहा स्वदेश हो
यातना विशेष हो
क्षुद्र जीत–हार पर, यह दिया बुझे नहीं
यह स्वतंत्र भावना का स्वतंत्र गान है।

जो जीवन की धूल चाट कर बड़ा हुआ है

केदारनाथ अग्रवाल

जो जीवन की धूल चाट कर बड़ा हुआ है
तूफ़ानों से लड़ा और फिर खड़ा हुआ है
जिसने सोने को खोदा लोहा मोड़ा है
जो रवि के रथ का घोड़ा है
वह जन मारे नहीं मरेगा
नहीं मरेगा

जो जीवन की आग जला कर आग बना है
फौलादी पंजे फैलाए नाग बना है
जिसने शोषण को तोड़ा शासन मोड़ा है
जो युग के रथ का घोड़ा है
वह जन मारे नहीं मरेगा
नहीं मरेगा

यह धरती है उस किसान की

केदारनाथ अग्रवाल

यह धरती है उस किसान की

जो बैलों के कंधों पर

बरसात घाम में,

जुआ भाग्य का रख देता है,

खून चाटती हुई वायु में,

पैनी कुसी खेत के भीतर,

दूर कलेजे तक ले जा कर,

जोत डालता है मिट्टी को,

पांस डाल कर,

और बीज फिर बो देता है

नये वर्ष में नयी फसल के

ढेर अन्न का लग जाता है।

यह धरती है उस किसान की।

नहीं कृष्ण की,

नहीं राम की,

नहीं भीम की, सहदेव, नकुल की

नहीं पार्थ की,

नहीं राव की, नहीं रंक की,

नहीं तेग, तलवार, धर्म की

नहीं किसी की, नहीं किसी की

धरती है केवल किसान की।

सूर्योदय, सूर्यास्त असंख्यों

सोना ही सोना बरसा कर

मोल नहीं ले पाए इसको;

भीषण बादल

आसमान में गरज गरज कर

धरती को न कभी हर पाये,

प्रलय सिंधु में डूब-डूब कर

उभर-उभर आयी है ऊपर।

भूचालों-भूकम्पों से यह मिट न सकी है।

यह धरती है उस किसान की,

जो मिट्टी का पूर्ण पारखी,

जो मिट्टी के संग साथ ही,

तप कर,

गल कर,

मर कर,

खपा रहा है जीवन अपना,

देख रहा है मिट्टी में सोने का सपना,

मिट्टी की महिमा गाता है,

मिट्टी के ही अंतस्तल में,

अपने तन की खाद मिला कर,

मिट्टी को जीवित रखता है;

खुद जीता है।

यह धरती है उस किसान की!

भ्रम

सुभद्रा कुमारी चौहान

देवता थे वे, हुए दर्शन, अलौकिक रूप था।

देवता थे, मधुर सम्मोहन स्वरूप अनूप था॥

देवता थे, देखते ही बन गई थी भक्त मैं।

हो गई उस रूपलीला पर अटल आसक्त मैं॥

देर क्या थी? यह मनोमंदिर यहाँ तैयार था।

वे पधारे, यह अखिल जीवन बना त्यौहार था॥

झाँकियों की धूम थी, जगमग हुआ संसार था।

सो गई सुख नींद में, आनंद अपरंपार था॥

किंतु उठ कर देखती हूँ, अंत है जो पूर्ति थी।

मैं जिसे समझे हुए थी देवता, वह मूर्ति थी॥

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी

सुभद्रा कुमारी चौहान

सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,

बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी,

गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,

दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।

चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी,

लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,

नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी,

बरछी ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी।

वीर शिवाजी की गाथायें उसकी याद ज़बानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार,

देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,

नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,

सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवार।

महाराष्टर-कुल-देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में,

ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई झाँसी में,

राजमहल में बजी बधाई खुशियाँ छाई झाँसी में,

चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव से मिली भवानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजियाली छाई,

किंतु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई,

तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाई,

रानी विधवा हुई, हाय! विधि को भी नहीं दया आई।

निसंतान मरे राजाजी रानी शोक-समानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

बुझा दीप झाँसी का तब डलहौज़ी मन में हरषाया,

राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया,

फ़ौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया,

लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झाँसी आया।

अश्रुपूर्णा रानी ने देखा झाँसी हुई बिरानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

अनुनय विनय नहीं सुनती है, विकट शासकों की माया,

व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया,

डलहौज़ी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई काया,

राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठुकराया।

रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब महरानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

छिनी राजधानी दिल्ली की, लखनऊ छीना बातों-बात,

कैद पेशवा था बिठुर में, हुआ नागपुर का भी घात,

उदैपुर, तंजौर, सतारा, करनाटक की कौन बिसात?

जबकि सिंध, पंजाब ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात।

बंगाले, मद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

रानी रोयीं रिनवासों में, बेगम ग़म से थीं बेज़ार,

उनके गहने कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाज़ार,

सरे आम नीलाम छापते थे अंग्रेज़ों के अखबार,

‘नागपूर के ज़ेवर ले लो लखनऊ के लो नौलख हार’।

यों परदे की इज़्ज़त परदेशी के हाथ बिकानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

कुटियों में भी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान,

वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान,

नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान,

बहिन छबीली ने रण-चण्डी का कर दिया प्रकट आहवान।

हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी,

यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी,

झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी,

मेरठ, कानपूर, पटना ने भारी धूम मचाई थी,

जबलपूर, कोल्हापूर में भी कुछ हलचल उकसानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम,

नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम,

अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम,

भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम।

लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो कुरबानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

इनकी गाथा छोड़, चले हम झाँसी के मैदानों में,

जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में,

लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुँचा, आगे बड़ा जवानों में,

रानी ने तलवार खींच ली, हुया द्वन्द्ध असमानों में।

ज़ख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार,

घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार,

यमुना तट पर अंग्रेज़ों ने फिर खाई रानी से हार,

विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार।

अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी रजधानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

विजय मिली, पर अंग्रेज़ों की फिर सेना घिर आई थी,

अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुहँ की खाई थी,

काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आई थी,

युद्ध श्रेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी।

पर पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय! घिरी अब रानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,

मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी,

अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी,

हमको जीवित करने आयी बन स्वतंत्रता-नारी थी,

दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी,

यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी,

होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी,

हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी।

तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

एक भी आँसू न कर बेकार

रामावतार त्यागी

एक भी आँसू न कर बेकार
जाने कब समंदर मांगने आ जाए!

पास प्यासे के कुआँ आता नहीं है
यह कहावत है, अमरवाणी नहीं है
और जिस के पास देने को न कुछ भी
एक भी ऐसा यहाँ प्राणी नहीं है

कर स्वयं हर गीत का श्रृंगार
जाने देवता को कौनसा भा जाय!

चोट खाकर टूटते हैं सिर्फ दर्पण
किन्तु आकृतियाँ कभी टूटी नहीं हैं
आदमी से रूठ जाता है सभी कुछ
पर समस्यायें कभी रूठी नहीं हैं

हर छलकते अश्रु को कर प्यार
जाने आत्मा को कौन सा नहला जाय!

व्यर्थ है करना खुशामद रास्तों की
काम अपने पाँव ही आते सफर में
वह न ईश्वर के उठाए भी उठेगा
जो स्वयं गिर जाय अपनी ही नज़र में

हर लहर का कर प्रणय स्वीकार
जाने कौन तट के पास पहुँचा जाए!

आए जिस जिस की हिम्मत हो

अटल बिहारी वाजपेयी

हिन्दु महोदधि की छाती में धधकी अपमानों की ज्वाला,

और आज आसेतु हिमाचल मूर्तिमान हृदयों की माला ।

सागर की उत्ताल तरंगों में जीवन का जी भर कृन्दन,

सोने की लंका की मिट्टी लख कर भरता आह प्रभंजन ।

शून्य तटों से सिर टकरा कर पूछ रही गंगा की धारा,

सगरसुतों से भी बढ़कर हां आज हुआ मृत भारत सारा ।

यमुना कहती कृष्ण कहाँ है, सरयू कहती राम कहाँ है

व्यथित गण्डकी पूछ रही है, चन्द्रगुप्त बलधाम कहाँ है?

अर्जुन का गांडीव किधर है, कहाँ भीम की गदा खो गयी

किस कोने में पांचजन्य है, कहाँ भीष्म की शक्ति सो गयी?

अगणित सीतायें अपहृत हैं, महावीर निज को पहचानो

अपमानित द्रुपदायें कितनी, समरधीर शर को सन्धानो ।

अलक्षेन्द्र को धूलि चटाने वाले पौरुष फिर से जागो

क्षत्रियत्व विक्रम के जागो, चणकपुत्र के निश्चय जागो ।

कोटि कोटि पुत्रो की माता अब भी पीड़ित अपमानित है

जो जननी का दुःख न मिटायें उन पुत्रों पर भी लानत है ।

लानत उनकी भरी जवानी पर जो सुख की नींद सो रहे

लानत है हम कोटि कोटि हैं, किन्तु किसी के चरण धो रहे ।

अब तक जिस जग ने पग चूमे, आज उसी के सम्मुख नत क्यों

गौरवमणि खो कर भी मेरे सर्पराज आलस में रत क्यों?

गत गौरव का स्वाभिमान ले वर्तमान की ओर निहारो

जो जूठा खा कर पनपे हैं, उनके सम्मुख कर न पसारो ।

पृथ्वी की संतान भिक्षु बन परदेसी का दान न लेगी

गोरों की संतति से पूछो क्या हमको पहचान न लेगी?

हम अपने को ही पहचाने आत्मशक्ति का निश्चय ठाने

पड़े हुए जूठे शिकार को सिंह नहीं जाते हैं खाने ।

एक हाथ में सृजन दूसरे में हम प्रलय लिए चलते हैं

सभी कीर्ति ज्वाला में जलते, हम अंधियारे में जलते हैं ।

आँखों में वैभव के सपने पग में तूफानों की गति हो

राष्ट्र भक्ति का ज्वार न रुकता, आए जिस जिस की हिम्मत हो ।

आओ फिर से दिया जलाएँ

अटल बिहारी वाजपेयी

आओ फिर से दिया जलाएँ

भरी दुपहरी में अंधियारा

सूरज परछाई से हारा

अंतरतम का नेह निचोड़ें-

बुझी हुई बाती सुलगाएँ।

आओ फिर से दिया जलाएँ

हम पड़ाव को समझे मंज़िल

लक्ष्य हुआ आंखों से ओझल

वतर्मान के मोहजाल में-

आने वाला कल न भुलाएँ।

आओ फिर से दिया जलाएँ।

आहुति बाकी यज्ञ अधूरा

अपनों के विघ्नों ने घेरा

अंतिम जय का वज़्र बनाने-

नव दधीचि हड्डियां गलाएँ।

आओ फिर से दिया जलाएँ

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